प्राचीन भारतीय इतिहास के आधुनिक लेखक – जब हमने अपने अतीत को फिर से देखा

हम सब जानते हैं कि भारत का इतिहास अत्यंत समृद्ध है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि प्राचीन भारत के इतिहास को आधुनिक ढंग से किसने लिखा? किसने हमारी पुरानी परंपराओं, शास्त्रों और सभ्यता को शोध और प्रमाणों के साथ दुनिया के सामने रखा?

आज हम उन्हीं लेखकों की बात करेंगे, जिन्होंने भारत के अतीत को समझने और समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


प्राचीन भारतीय इतिहास के लेखक शुरुआत कहां से हुई?

हमारे शिक्षित पूर्वजों ने महाकाव्य, पुराणों और जीवन चरित्रों जैसे ग्रंथों में इतिहास को सहेज कर रखा था। लेकिन आधुनिक ढंग से अनुसंधान की शुरुआत अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध (18वीं सदी का दूसरा भाग 1750-1800) से हुई।


औपनिवेशिक (ब्रिटिश) दृष्टिकोण और उनका योगदान

1765 से 1857 के बीच की बात करें तो…

जब 1765 में बंगाल और बिहार ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में आए, तो अंग्रेजों को हमारी न्याय व्यवस्था समझने में कठिनाई हुई। इसीलिए उन्होंने कलकत्ता मदरसा की स्थापना की और मनुस्मृति का अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया।

इसी दौरान, पंडितों और मौलवियों को ब्रिटिश जजों के साथ लगाया गया ताकि हिन्दू-मुस्लिम कानूनों को समझा जा सके। इससे एक नई ऐतिहासिक खोज की शुरुआत हुई।

1784 में विलियम जोन्स ने एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना की। उनके प्रयासों से:

  • 1785 में भगवद गीता का अनुवाद हुआ
  • 1789 में अभिज्ञान शाकुंतलम् का अनुवाद हुआ

उन्होंने यह भी कहा कि यूरोपीय भाषाएं, संस्कृति और ईरानी भाषाएं भारतीय भाषाओं से बहुत मिलती-जुलती हैं। इस विचार ने भारतीय ज्ञान को पश्चिम में नई पहचान दी।

 1857 के बाद क्या बदला?

1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश हुकूमत को लगा कि अगर भारत पर शासन करना है, तो हमें उनकी परंपराओं और रीति-रिवाजों को गहराई से समझना होगा।

इस दौरान धर्म-परिवर्तन करने वाले मिशनरियों ने भी हिन्दू धर्म की कमजोरियों को जानने की कोशिश की।

मैक्समूलर के नेतृत्व में धार्मिक ग्रंथों का विशाल अनुवाद कार्य हुआ, जिसमें भारतीय ग्रंथों के अलावा चीनी और ईरानी ग्रंथ भी शामिल थे।


ब्रिटिश इतिहासकारों की सोच – और हमारा असहमति

ब्रिटिश विद्वानों ने जो निष्कर्ष निकाले, उनमें भारत के लिए बहुत नकारात्मक बातें थीं:

  • हमको काल और तिथिक्रम की समझ नहीं है
  • हम आध्यात्मिकता में डूबे रहते हैं, यथार्थ से दूर हैं
  • जाति प्रथा को बहुत कठोर और विभाजक बताया गया
  • यह कहा गया कि हममें राष्ट्रीय भावना नहीं है, और स्वशासन का कोई अनुभव नहीं है 

विंसेट आर्थर स्मिथ ने 1904 में अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया लिखी। इसमें भारत के राजनीतिक इतिहास को ही मुख्य विषय बनाया और सिकंदर के आक्रमण को बहुत विस्तार से लिखा।

 इसका उद्देश्य क्या था?

  • हमको एक ही सत्ता में रखने की परंपरा बताकर ब्रिटिश शासन को न्यायसंगत ठहराना
  • यह दर्शाना कि हम स्वशासन के योग्य नहीं
  • और यह कि हमको ब्रिटिश शासन की ज़रूरत है

 राष्ट्रवादी इतिहासकारों की चुनौती और उनका योगदान

अब आप सोच सकते हैं कि जब हमारे देश को जानबूझकर नीचे दिखाया गया, तो क्या कोई खड़ा हुआ?

हाँ जरूर –  भारतीय विद्वानों (प्राचीन भारतीय इतिहास के लेखक) ने इसका जोरदार विरोध किया। उन्होंने प्राचीन भारत के इतिहास का पुनर्लेखन किया, तथ्यों के साथ।

👇आइए, कुछ महान नामों को जानें:

  • राजेन्द्र लाल मित्र – इन्होंने वैदिक ग्रंथों का प्रकाशन किया और बताया कि प्राचीन काल में भी लोग गोमांस खाते थे। उन्होंने यह भी दिखाया कि वर्ण व्यवस्था, यूरोप की सामाजिक व्यवस्था से अलग नहीं है।
  • रामकृष्ण गोपाल भंडारकर –  इन्होंने सातवाहन वंश, वैष्णव परंपरा, जाति प्रथाबाल विवाह जैसी सामाजिक कुप्रथाओं पर शोध किया।
  • विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े –  इन्होंने 22 खंडों में मराठा और संस्कृत पांडुलिपियों को प्रकाशित किया और भारतीय विवाह की विकास प्रक्रिया पर प्रकाश डाला।
  • पांडुरंग वामन काणे –  उनकी हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र के ज़रिए हम प्राचीन भारत के सामाजिक नियमों को समझ सकते हैं।
  • देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर –  इन्होंने अशोक और प्राचीन भारत की राजनीतिक संस्थाओं पर काम किया।
  • हेमचंद्र राय चौधरी –  इन्होंने महाभारत काल से लेकर गुप्त वंश तक इतिहास को फिर से लिखा।
  • आर. सी. मजूमदार –  उनकी किताब हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ इंडियन पीपुल में हिन्दू पुनर्जागरण की झलक मिलती है।
  • के. ए. नीलकंठ शास्त्री –  दक्षिण भारत के इतिहास को उचित सम्मान दिलाया, हिस्ट्री ऑफ साउथ इंडिया उनकी प्रसिद्ध कृति है।
  • के. पी. जायसवाल –  उन्होंने सिद्ध किया कि भारत में गणराज्य भी थे, और भारत में शासन सिर्फ राजाओं तक सीमित नहीं था।

अराजनैतिक इतिहास की ओर मोड़

अब सवाल उठता है कि क्या केवल राजनीतिक इतिहास ही ज़रूरी है?

नहीं। कुछ विद्वानों ने सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर भी ध्यान दिया।

  • ए. एल. वैशम – उनकी किताब वंडर दैट वॉज इंडिया में भारत की संस्कृति और सभ्यता का बहुत सुंदर वर्णन है। यह राजनीतिक से अराजनैतिक इतिहास की ओर एक महत्वपूर्ण मोड़ थी।
  • डी. डी. कौसंबी – उनकी किताब एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री ने इतिहास लेखन को नई दिशा दी। उन्होंने जनजातियों, उत्पादन व्यवस्था, वर्ग संरचना और आर्थिक-सामाजिक विकास पर गहरी चर्चा की।

आज की स्थिति – नया दृष्टिकोण

पिछले 40 वर्षों में इतिहासकारों की सोच और पद्धति में बड़ा बदलाव आया है। अब:

  • सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है।
  • राजनीतिक घटनाओं को भी सामाजिक संदर्भों से जोड़ा जाता है।
  • ग्रंथों का आंतरिक विश्लेषणपुरातात्विक और नृविज्ञान संबंधी प्रमाण एक साथ मिलाकर इतिहास लिखा जाता है।

लेकिन एक बात ज़रूरी है – न तो अंध राष्ट्रवाद, और न ही उपनिवेशवादी सोच ही हमारे अतीत को समझने का सही तरीका है। हमें हमारे प्राचीन भारत को संतुलित और वस्तुनिष्ठ नजरिए से देखना होगा।


 निष्कर्ष – हमारा इतिहास, हमारी पहचान

तो मित्रों, जब हम और आप मिलकर भारत के अतीत को समझते हैं, तो ये केवल बीते हुए कल की बातें नहीं होतीं, बल्कि हमारी आज की सोच, और कल की दिशा भी तय करती हैं।

जिन विद्वानों ने प्राचीन भारत के इतिहास को लिखने का साहस किया, उन्होंने हमारे लिए रास्ता बनाया, ताकि हम अपने अतीत को समझ सकें – और उसी समझ से भविष्य को रच सकें।

हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हम एक ऐसे देश से हैं, जिसकी परंपरा, सोच और इतिहास को दुनिया भर के विद्वानों ने गंभीरता से लिया – और जिसे हम और आप आज फिर से जीवित कर रहे हैं


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